न बांटों मुझे तुम धर्मों के भेद में....
ये रंग भी कहां चुप रह पाते हैं...





ये रंग भी कहां चुप रह पाते हैं
कर ही देते हैं ब्याँ
दास्तानें पल-पल की…
कहते हैं मायूस से
न बांटों मुझे तुम धर्मों के भेद में,
है पसंद मुझे हर इन्सान,
हर जाति हर भेष में….
नहीं बंटना मुझे राग द्वेष के कलुषित से परिवेश में….
देखो! प्रकृति भी तो खिले इनकी ही छटाओं के अद्भुत परिवेश में…
न आंकों मुझे तुम कम ज़्यादा के इस पशोपेश से…
हैं रंगना हम सभी को प्रेम के
सुनहरे कैन्वस में….
आड़म्बर हो या झूठ, आखिर रंग नहीं चढ़ता इनका
सच्चाई के किसी भी भेष पर….
ये रंग बेरंग भी नहीं हैं
है इनकी छाप....
सुख-दुख, धूप-छांव
के हर मर्म का
है अचूक मरहम
तभी तो, बसंत-सावन, होली, दीवाली
सभी त्योहार बने रंगों की ही सौगात।
डा .प्रज्ञा कौशिक, मीडिया एजुकेटर