क्या आज भारत में स्त्री - पुरुष समान हैं ?
सशक्त नारी- सशक्त देश....





26- अगस्त अन्तरराष्ट्रीय महिला समानता दिवस के रुप में मनाया जाता है। इसी दिन 26- अगस्त 1920 को अमेरिका में महिलायों को सविंधान में समान अधिकार दिए गए थे। अब यह दिन विश्व भर में मनाया जाता है।
क्या आज भारत में स्त्री - पुरुष समान हैं ?
भारत की प्राचीन सभ्यता एवम् संस्कृति में स्त्रियों को उच्च स्थान दिया गया है। स्त्रियों को अर्धांगिनी का दर्जा दिया गया । हमारे समाज में माँ का स्थान सर्वोच्च माना गया है। नारी को सरस्वती, दुर्गा , काली एवम् लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान पुरुषों के समान था। उनको शिक्षा एवम् संपति पर अधिकार था। वह वेद शास्त्रों में पुरुषों के साथ प्रति स्पर्धा करती थी। गार्गी, अनुस्या एवम् मैत्रेयी का नाम आज भी गर्व से लिया जाता है। लड़कियाँ अपना वर अपनी इच्छा अनुसार चुन सकती थी।
कालांतर में यह स्थिति बदलती चली गई। पुरुषों का वर्चस्व बढ़ता गया। महिलाओ की आज़ादी पर अंकुश लगने लगे। धर्म गुरुओं ने बाल विवाह एवम् बहु पत्नी - प्रथा के प्रचलन को बढ़ावा दिया । लड़कियो की शिक्षा में बाधा आने लगी। पति ही परमेश्वर है और उसकी सेवा ही परम धर्म माना गया। स्त्रियों के लिए पति सेवा ही बस कर्तव्य बन गया। वह गुलामी की जंजीरों में बंधती गई।
बारहवीं शताब्दी में आक्रमणकारियो ने औरतों पर बहुत अत्याचार किए। मुगल काल में हालात और भी बिगड़ गए। पर्दा - प्रथा लागु हो गई। विधवा - विवाह पर प्रति बंध लगा दिया गया। आज भी मथुरा - वृंदा वन में हज़ारों की संख्या में बाल विधवाएं आपको नजर आ सकती है।
राजा राम मोहन राव एवम् स्वामी दया नंद जैसे समाज सुधारकों ने औरतों की इस दयनीय दशा को सुधारने के लिए महत्व पूर्ण प्रयास किए। सती प्रथा, बाल विवाह के विरोध में संघर्ष किया। कवियों ने भी अपनी कविताओं के माध्यम से इन कुरीतियों के विषय में जन - मानस और सरकार का ध्यान आकिर्षित किया। इस के फल स्वरूप सरकार ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए कई कानून बनाये। विवाह के लिए लड़कियो की आयु सीमा 18- वर्ष कर दी गई। बाल- विवाह दंडनीय अपराध माना गया। स्वतंत्रता के बाद संविधान में स्त्रियों एवम् पुरुषों को समान अधिकार दिये गए। लड़कियो को +2 तक मुफ्त शिक्षा एवम् छात्रवृति का प्रावधान किया गया। दहेज विरोधक अधिनियम पारित किया गया । बहु पत्नी - प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। स्त्रियों को स्वेच्छा से न्यायलय द्वारा तलाक लेने का अधिकार दिया गया। समय - समय पर नारी सशक्तिकरण के लिए कानून बने। यौन शोषण एवम् ब्लात्कार संबंधी कानून बनाये गए और उसमे संशोधन किए गए।
इस में कोई संदेह नहीं कि आज़ादी के बाद स्त्रियों की दशा में बहुत सुधार हुआ है। बहने/ बेटियां हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं , कल्पना चावला पहली भारतीय महिला थी जो NASA में अंतरिक्ष यात्री के तौर पर शामिल हुई। मैरी काम, साइना नेहवाल , पी . टी. उषा, पी. वी. सिंधु एवम्ं मीराबाई चानू आदि नामों से कौन परिचित नहीं हैं। इन सब ने ओलंपिक में पुरे विश्व में देश का परचम फहराया है। ज्ञान, विज्ञान, चिकित्सा - क्षेत्र मे भी अपना वर्चस्व दिखाया है। देश की आतंरिक - सुरक्षा हो या देश की सीमायों की रक्षा पर बखूबी से अपना कर्तव्य निभा रही हैं।
राजनीति में भी विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री एवम् राष्ट्रपति के पद तक पहुँच कर देश को उन्नति पथ पर ले जाने का श्रेय इनको जाता है।
निःसंदेह स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों की दशा में सुधार आया है। नारी अब जागरूक हो रही है। संविधान एवम् कानून ने नारी को समान अधिकार दिए हैं।
अभी भी यह प्रश्न उठता है कि क्या धरातल पर नारियो की स्थिति अब बेहतर हुई है ? शायद नहीं।
भ्रूण- हत्या, लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, यौन उत्पिडंण्, छेड़छाड़, शोषण, दमन एवम् बलात्कार आदि समस्याएं अभी भी मौज़ूद हैं ।
अगर हम आंकड़ों पर नजर डाले तो लड़को का साक्षरता दर 75.3% है, वहीं लड़कियों का 53.7% है। यह अंतर अभी भी 21% से अधिक है। अधिकतर लड़कियाँ दसवीं की शिक्षा के बाद सुविधाओं के अभाव के कारण पढाई छोड़ जाती हैं। स्त्रियों को सुरक्षा की दृष्टि से देखें तो तस्वीर बड़ी भयावह है। प्राय: यह देखा गया है कि मनचले एवम् पाशविक- वृति वाले युवक लड़कियों को अपना एक तरफा प्यार दिखा कर उन्हे झांसे में डालने का प्रयास करते हैं। लड़कियों के ठुकराने पर धमकिया देते हैं और उन् के चेहरे पर तेज़ाब फैंक देते हैं। उन का भविष्य अंधकार में धकेल देती हैं। 2005- का लक्ष्मी अग्रवाल पर तेज़ाब फैक्ने का बहु-चर्चित केस अब भी दिल दहला देता है। अधिकतर ऐसे युवक जमानत पर छूट जाते हैं।
आंकड़ो के अनुसार हर साल देश में औसतन 33,000 ब्लात्कार होते हैं।कार्य स्थलों पर यौन शोषण का शिकार होती हैं। लज्जा एवम् भय के कारण आवाज़ नहीं उठा पाती- यह नारी। अगर कौशिश भी करती है तो समाज के ठेकेदार एवम् अंधा कानून उसे न्याय नहीं दे पाते। कानून की इतनी लंबी प्रक्रिया है कि नारी टूट जाती है। 2012- का निर्भया - कांड इसका जीता - जागता उदाहरण है।
दहेज निरोधक कानून के होते हुए भी लड़कियो को उच्च शिक्षा देने के बावज़ूद भी दहेज देना पड़ता है । कानून पुस्तकों तक सीमित रह जाते हैं। आवश्यकता है समाज की सोच बदलने की। पुरुषो को अधिक संवेदन शील होने की।
लड़कियों की दशा सुधारने में माता - पिता की भूमिका की भूमिका भी अहम है । माता - पिता लिंग के आधार पर बच्चों के पालन - पोषण में अंतर करते हैं। लड़कों को हर तरह की स्वतंत्रता और लड़कियों पर बंदिश। माता पिता बच्चों को उचित संस्कार देने का प्रयास करें, विशेषकर लड़को को। बच्चों के साथ ऐसे संबंध बनाये कि हर बात आप से साँझा कर सकें। उन्हें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का अंतर समझाइए। लड़कियों को ऐसे संस्कार दें कि वह निर्भीक एवम् साहसी बने। उन्हे योगा , कराटे और तायक्वोंडो आदि खेलों की ट्रेनिंग दिलवाएं ताकि वह समय पर अपनी आत्मरक्षा कर सकें।
हमारे सांसदों और जनप्रतिनिधियों को भी ऐसे कानून बनाने चाहिए कि अपराधियों को कड़ी सज़ा जल्दी से जल्दी मिले। न्याय पालिका को ऐसे घिनोने अपराधों के लिए निर्णय प्रक्रिया तेज करनी चाहिए ताकि पीड़िता को समय पर न्याय मिल सके।
अगर ऐसे कदम उठाये जाएं तो संभवत: आने वाले समय में समाज में स्त्री -पुरुष समान हो पायेंगे बल्कि समाज भी उन्नति की तरफ अग्रसर होगा । ऐसा मेरा मानना है। बस बात महिला और पुरुष के एक साथ और साथ देते हुए सम्मान के साथ चलने की तो है।
डा. जे. के. डांग, प्रोफेसर ( सेवानिवृत) चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
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